रविवार, 22 सितंबर 2019

बैंक तो हमारा चेहरा है जिसे हम आइने में निहार रहे है

वित्तीय अनियमितता रोजमर्रा के धेखे है जिन्हें हमारा समाज और परिवार झेलता है 
बैंक तो हमारा चेहरा है जिसे हम आइने में निहार रहे है



प0नि0ब्यूरो
देहरादून। देशभर में बैंकों के लोन घोटाले चिंता का सबब बने हुये है। सरकार भी हतप्रभ है कि यह क्या हो रहा है। इससे पहले कि वह थोड़ा संभलती है, दूसरा मामला सामने आ जाता है। जवाब देना उसके लिये टेढ़ी खीर होता जा रहा है। तमाम तरह के उपाय बेमानी साबित हो रहे है। सरकार की सारी मेहनत मिट्टी में मिल रही है। ऐसे में एक व्यापक विश्लेषण जो मजबूर करती है कि इन सबकी वजहों को समझा जाये।
दरअसल यह बैंक घोटाले तो हमारा ही चेहरा है जिसे हम जैसे आइने में निहार रहे है। वहीं वित्तीय अनियमितता हमारे जीवन के रोजमर्रा के वो धोखे है जिसे हमारा समाज और परिवार नित झेलता रहता है। सरकारी पैसा और बैंकों की रकम चूंकि हिसाब किताब में दर्ज रहते है इसलिये स्केम के रूप में उजागर होते रहते है लेकिन हम लोग जो अपने परिचितों, मित्रों एवं संबंधियों ने बिना ब्याज के ऋण लेते है और उसे नही चुकाते, उसे क्या कहा जाये? यह आम बात है जिसे नजरअंदाज नही किया जा सकता। खासकर ऐसे समाज में जहां संबंधें में लेनदेन को पर्देदारी में रखा जाता है। दोस्ती रिश्तेदारी का व्यवसाय और लेनदेन को दुश्मन समझा जाता है।
गौर फरमाये कि आप एक अजनबी को अपना व्यवसायिक साझेदार बना लेते है परन्तु अपनों के संग आर्थिक हितों को सांझा नही करते। यह गुनाह हो जाता है कि ऐसा करने से यारी दोस्ती खत्म हो जाती है। शायद इसीलिये तकरीबन हर दुकान में आपको एक बोर्ड टंगा मिल जायेगा जिसमें उल्लेख रहता है कि उधर प्रेम की कैंची है। संस्कारों की नींव परिवार और समाज में डलती है। चूंकि वहां व्यक्ति अनुभव करता है कि मदद लो और भूल जाओ। यही कारगर तरीका है। 
शायद इसीलिये परिवार और समाज में लोग मदद के तौर पर बिना ब्याज के रकम लेते है जिसे ईमानदारी से लौटाने की बजाय, डकार जाते है। ऐसी प्रवृति के बीज जब मन के भीतर बोये गये हो तो भला हम बैंकों की उधारी चुकाने की कल्पना भी कैसे कर सकते है? इसका ही परिणाम है कि जो भी कर्ज लेता है, वह उसे चुकाने का यत्न करने की बजाय कामना करता है कि वह माफ हो जाये। चाहे इसके लिये उसे किसान का रूप धरना पड़े या दिवालिया व्यवसायी होने का स्वांग रचना पड़े। क्या फर्क पड़ता है। जबकि कर्ज लिया तो आपदा के वक्त यही होना बहुत है कि बन्दे का ब्याज माफ हो जाये। 
अब बैंकों के घोटाले सामने आ रहे है तो हम इसलिये घोटालेबाजों को कोस रहे है कि वे हमसे आगे कैसे निकल गये। बल्कि उनसे ज्यादा बैंकों के कर्मचारियों और सरकार को दोषी ठहरा रहे है।


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