क्या पितृपक्ष में दाढ़ी व बाल कटवाने से पूर्वजों को होता है कष्ट
प0चैतराम भट्ट
देहरादून। श्राद्ध का पक्ष जीवन में संघर्ष से उत्कर्ष की राह पर गतिशील होने समय है। इस कालखंड में स्वयं पर श्रद्धा व विश्वास, आर्थिक स्थिति सुधारने तथा समृद्धि प्राप्ति की उपासनाएं और सकारात्मक विचार व्यक्ति के कर्मों में बदलाव कर सफलता का मार्ग प्रशस्त करता है। लक्ष्मी और ज्ञान की साधना के लिए यह एक उत्तम काल है। इस पक्ष का सही प्रयोग जीवन में आमूलचूल परिवर्तन का कारक बनता है। श्रद्धा से किया गया श्राद्ध पूर्वजों तक पहुंचे, न पहुंचे, जीवन में उन्नति और प्रगति का द्वार अवश्य खोल सकता है।
– पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार श्राद्ध के दरमियान पूर्वजों को तेल अर्पित कर उसका दीपदान शनि व कालसर्प जनित कष्टों को नष्ट करने में सहायक होता है।
– श्राद्ध में दूध, तिल, तुलसी, सरसों और शहद का अर्पण और तर्पण संघर्ष में कमी करता है, ऐसा मान्यताएं कहती हैं।
– तैत्तिरीय संहिता के अनुसार दुर्भाग्य से मुक्ति हेतु दक्षिणमुखी होकर श्राद्ध करना लाभदायक होता है।
पितृपक्ष बेहद पवित्र काल है। इसे अशुभ समझना अज्ञानता है। इस दरमियान भौतिक गतिविधियों को महत्व नहीं दिया जाता है क्योंकि आध्यात्मिक नजरिया स्थूल समृद्धि और भौतिक सफलता को क्षणभंगुर यानी शीघ्र मिट जाने वाला मानता है। भारतीय दर्शन इस कीमती कालखंड का इतना सस्ता उपयोग नहीं करना चाहता। इस समय में साधना, आराधना, उपासना व पूजन अवश्य किया जा सकता है। सनद रहे कि ऐश्वर्य की कामना रखकर महालक्ष्मी को प्रसन्न करने वाली समृद्धि की साधना भी इस पक्ष के बिना पूर्ण नहीं होती। महालक्ष्मी आराधना के द्वितीय खंड में इस पक्ष के प्रथम सप्ताह का प्रयोग होता है। संदर्भ के लिए लक्ष्मी उपासना का काल भाद्रपद के शुक्ल की अष्टमी यानि राधा अष्टमी से आरम्भ होकर कृष्ण पक्ष की अष्टमी तक होता है।
परंपराओं के अनुसार इस काल में श्राद्ध, तर्पण, उपासना, प्रार्थना से पितृशांति के साथ जीवन के पूर्व कर्म जनित संघर्ष से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है, ऐसा मान्यताएं कहती हैं।
श्राद्धपक्ष में केश कर्तन न करने का कोई उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता है। यह दंत कथाओं, सुनी-सुनाई बातों या किसी के अनुभव से प्रेरित होकर बाद में प्रचलित परंपराओं पर आधारित है। इनका कोई सुदृढ़ या शास्त्रीय आधार नहीं है।
हमारी परंपराओं और प्राचीन ग्रंथों में पितृपक्ष के अलावा भी श्राद्ध के काल का उल्लेख प्राप्त होता है। धर्मसिंधु में श्राद्ध के लिए सिर्फ पितृपक्ष ही नहीं, बल्कि 96 काल खंड का विवरण मिलता है, जो इस प्रकार है- वर्ष की 12 अमावास्याएं, 4 पुणादि तिथियां, 14 मन्वादि तिथियां, 12 संक्रांतियां, 12 वैधृति योग, 12 व्यतिपात योग, 15 पितृपक्ष, 5 अष्टका, 5 अन्वष्टका और 5 पूर्वेद्यु:।
मत्स्य पुराण में त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते यानी तीन प्रकार के श्राद्ध नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य का और यमस्मृति में नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण इन पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। पर भविष्य पुराण और विश्वामित्र स्मृति द्वादश श्राद्धों यथा, नित्य, नैमित्तिक, काम्यम, वृद्धि, सपिण्ड, पार्वण, गोष्ठी, शुद्धयर्थ, कर्मांग, तीर्थ, यात्रार्थ और पुष्टि का उल्लेख करती है।
जिनकी मृत्यु तारीख पता न हो, उनका श्राद्ध अमावस्या को किया जाता है, ऐसा पारंपरिक अवधारणाएं कहती हैं।