अंत भला तो सब भला
मानसून और मच्छर से ज्यादा खबरों का टेरर
चेतन सिंह खड़का
देहरादून। एक मच्छर अच्छे भले आदमी को आतंकित कर देता है। इस बार के मानसूनी मौसम के दौरान तो ऐसा ही अनुभव सामने पेश आया। भले ही किसी को वायरल फीवर ही क्यों न हो गया लेकिन तसल्ली के लिए बन्दे ने डेंगू की पूरी जांच करवा ली। हालांकि यह बुरी बात नही लेकिन मच्छर का खौफ इतना बढ़ा हुआ था कि जरा सा बुखार हुआ नही कि लोग बाग अस्पताल में एडमिट हो गये।
चूंकि आजकल टेरर कमाई का फंड़ा हो गया इसलिए अस्पतालों ने भी डर के नाम पर खूब चांदी काटी। अब भला कोई आते हुए लाभ को ठुकराता है? तो अस्पताल और डाक्टर क्योंकर तटस्थ रहते? जैसे आजकल नये मोटर व्हीकल एक्ट के लागू होने के बाद टेरर की वजह से लोग पाल्यूशन कंट्रोल सर्टिफिकेट के लिए रात दिन एक किए हुए है। कोई डीएल बनवा रहा है तो कोई कागजात दुरूस्त करवा रहा है। सच तो है कि भय बिन होये न प्रीति।
इस बार पपीते के पत्ते और गिलोय की बेल पिछली बार की तरह तारनहार बनकर काम आये। वहीं लोगों का सामान्य ज्ञान भी बढ़ गया। वरना कहां हम जानते थे कि प्लेट्सलेट क्या होता है? वो तो भला हो डेंगू का, नही तो मलेरिया से कोई डरता ही नही था। चूंकि डर का माहौल था इसलिए अस्पतालों की पौ बारह होती रही। हर जगह बेड ठसा-ठस भरे रहे। इतनी बरसात हुई कि छोटे बड़े सब छक गये। सबके हिस्से में कुछ न कुछ आया।
जाने क्यों लोग कहते सुने जाते है कि देश में मंदी छाई हुई है। भाई साहब यकीन मानिये कि दवा दारू बहुत बिकी। सारा पुराना पड़ा स्टाक निकल गया। कभी कभी रस्क होता है कि यह ध्ंाधा क्यों न अपनाया। इतने मरीज कि डाक्टरों की कमी महसूस हुई। हालांकि जो मरीज ठीक होकर आये, उन्होंने जरूर इस कमी को पूरा करने के लिए इलाज के पूरे प्रोसेस की जानकारी अन्य को मुहैया करायी।
सच कहे तो इतना लोग बाग बीमारी से भयभीत नही थे जितना कि मानसून और मच्छरों से होने वाली बीमारियों की खबर ने उन्हें डराया। अब बरसात के आखिरी सत्र में ठंड वातावरण को अपने आगोश में ले रही है तो यह हव्वा भी फुस्स हुआ जा रहा है। यानि अंत भला तो सब भला। लेकिन हमारा दिमाग तो चिंतामणि है जो अब सोच रहा है कि पूरा दो तीन महीना इन्हीं बातों पर खबर को लेकर गुजर गया, आगे का गुजारा कैसे होगा? फिर मन में बात भी आती है कि तसल्ली रख कि कोई दूसरी बीमारी हमारा रास्ता आसान किए देगी।