शनिवार, 9 नवंबर 2019

नाम की प्रतीकात्मकता को सलाम

उत्तराखण्ड़ राज्य स्थापना दिवस पर विशेष
नाम की प्रतीकात्मकता को सलाम



रतन सिंह जौनसारी
देहरादून। संसार में नाम का बड़ा नाम है। संयोग से नाम यदि प्रतीकात्मक हो तो सोने में सुहागा। साहित्य में कवि-लेखक अपना उपनाम आप भुनाते है, जीवन भर उसी नाम का खाते है। साहित्यकारों से दो कदम आगे बढ़कर राजनेता या तो अपने नाम से अपना दल बनाते है या फिर जिस दल में होते है उसमें अवरोध उत्पन्न कर दल को अपने नाम से जोड़कर उस दल के सुप्रीमो बन जाते है। 
पहले राजनैतिक दलों के नाम नीति, पंथ, समाज, जाति या विचारधारा की दार्शनिकता को प्रतिबिम्बित करने वाले होते थे। कुछ प्रजातंत्रीय नाम नई राजनैतिक उथल-पुथल मचाने वाले होते थे। बाद में व्यक्तिवादी राजनीति का दौर शुरू हुआ। इन्दिरा गांधी ने देश को स्वाधीन कराने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को कांग्रेस आई बना दिया।



हिन्दी में आई का अर्थ होता है-आ गई, अंग्रेजी में आई माने 'मैं' होता है। कांग्रेस आई माने मैं कांग्रेस हूं अथवा मैं कांग्रेस बनकर आ गई हूं। इन्दिरा गांधी के नाम का पहला अंग्रेजी अक्षर आई है। इस प्रकार इंन्दिरा कांग्रेस का शार्ट फार्म हुआ कांग्रेस आई। उस जमाने में कांग्रेस के एक बड़े नेता थे देवराज अर्स। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दो फाड़ हुई तो एक फाड़ कांग्रेस आई और दूसरी फाड़ कांग्रेस यू अर्स हो गई। आई माने 'मै' और 'यू' माने तुम। अब आप इन दोनों शब्दों के अर्थ का भावी हश्र देखिये।
कांग्रेस आई और कांग्रेस यू लम्बे समय तक अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे। अन्त में इन्दिरा गांधी ने घोषणा की कि कांग्रेस आई मैं हूं। देवराज अर्स ने स्वीकार कर लिया कि हां-कांग्रेस यू तुम हो। धीरे-धीरे कांग्रेस यू का वर्चस्व मलिन पड़ता गया और कांग्रेस आई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कहलाने लगी। इसीलिये कहा जाता है कि नाम का बड़ा नाम होता है। इसमें सन्देह नही कि 'मै' अहंकार का प्रतीक है और तुम शिष्टाचार का। कलयुग में अहंकार पुजता है और शिष्टाचार धक्के खाता है। धक्के खा-खाकर दम तोड़ देता है। यही राजनीति की सत्य कथा है, हर 'हारे को' हरिनाम की यही व्यथा है।



अब अपने उत्तराखण्ड़ में आ जाइये। नवम्बर दो हजार में नये राज्य का पुष्प खिला। बड़ी कठिनाई से नया राज्य मिला। राज्य प्राप्ति के लिए जिन आन्दोलनकारियों ने धरती-गगन एक कर दिया उनमें उत्तराखण्ड़ क्रांति दल अग्रणी रहा। राज्य प्राप्ति के बाद सत्तासीन होने का सपना संजोया और गैरसैण को राजधनी बनाने का नारा उछाला। प्रथम आम चुनाव में ही आम जन ने अस्वीकार कर दिया। 'ना खुदा ही मिला ना बिसाले सनम्।' न सत्ता मिली न गैरसैण राजधनी बनी। न दल ही एकजुट रह पाया। यह कैसा कहर बरपाया।
वर्तमान में उक्रांद के दो धड़े है। उक्रांद 'ऐरी' और उक्रांद 'पी'। नाम का बड़ा नाम होता है। 'ऐरी' तो ऐ...री ही रह गया परन्तु 'पी' अपने नाम को सार्थक किये हुए है। बिन पिये भी बहुत कुछ पिये हुए है। सचमुच इस 'पी' में पूरे उत्तराखण्ड़ का स्वरूप हू-बहू झंकृत हो रहा है। आज यदि उत्तराखण्ड़ का एक्स-रे या अल्ट्रासाउण्ड़ करा कर देखें तो परिणाम 'पी' आयेगा। इसे कहते है करिश्माई नाम या नाम का करिश्मा। पूरा पहाड़ पी-पीकर हल्कान है इसलिये तो अपना उक्रांद महान है। नामकरण में क्या दिमाग लगाया? क्या जीवन दर्शन टटोला? यूकेडी के नाम के साथ 'पी' का दिग्दर्शन ऐसे-ऐसे संश्लिष्ट है कि पग-पग पर यत्र-तत्र-सर्वत्र 'पी' उभयनिष्ट है। 
अधिक क्यों उलझते हो- पी का साधरण अर्थ पीना। अपेय को पेय बनाकर पीना, अदेय प्रदेय बनाकर पीना, अजेय को विजेय बनाकर पीना, अज्ञेय को ज्ञेय बनाकर पीना। पी की इस प्रतीकात्मकता का शगल है जिस प्रकार भी संभव है-पी। यही कारण है कि नेता, अफसर, माफिया, अपराधी, जनप्रतिनिधि, समाज सुधारक, न्यायालय, आयोग, चिकित्सक, शिक्षक, उद्योगपति, व्यापारी, कर्मचारी जिसका जहां दांव लग रहा है, राज्य को निचोड़-निचोड़कर पी रहा है। लोकतंत्र यहां बड़ी मस्ती में जी रहा है।
जहां तक प्यार मुहब्बत की बात है- पी का अर्थ प्रिय से है, पिया से है, बालम से है प्रीतम से है। भगवान बड़ा कदरदान है, बेहद मेहरबान है उसकी ओर से पी के लिए राज्य को तीन-तीन प्रीतमों का वरदान है। अगर आपके पास 'पी' का गुरूमंत्र है। गले में 'पी' का ताबीज है तो दुख-दर्द, गरीबी क्या चीज है? 'को नृप होंहिं हमें का हानि' का चरणामृत 'पी' का ही प्रसाद है। सरकार किसी की हो, मुखिया कोई भी हो, इस बात से ज्यादा फर्क नही पड़ता। बस 'पी' कला में निष्णात होना ही विशेष योग्यता है। ई-गवर्नेन्स की जगह पी-गवर्नेन्स चलेगी। खूब फूलेगी-फलेगी।
यह 'पी' का ही श्रीफल था कि हम अतीत में 'पी' को महिमामंडित कर सके। महाकुंभ  हुआ तो पूरा कुंभ घड़ा खाली कर दिया। भीषण आपदा आई तो पूरी आपदा-राशि पी डाली। वास्तव में 'हम जीते है तो 'पी' के लिये और जवाबदेह है तो पी के प्रति। देवभूमि को पी का पर्यायवाची बनने का सौभाग्य कैसे मिलता? यदि यहां राजनीति की डाल पर 'पी' का पुष्प नही खिलता। सचमुच 'पी' की महिमा है ललित ललाम अस्तु 'पी' की प्रतीति कराने वाले प्रतीकात्मकता नाम के लिये उक्रांद पी को शत्-शत् प्रणाम।


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