आवाज
- चेतन सिंह खड़का
एक धीरे से आवाज उठी,
हमने समझा आगाज हुआ।
आगे जो कल होता!
देखो रे भईया आज हुआ। हमने समझा आगाज हुआ।।
गांव गांव आ पहुंचे है,
सबकी आवाजें लेकर।
आओ इन्हें बुलंद करें,
अपनी आवाजें देकर।
गली गली, नुक्कड़ नुक्कड़ में,
ऐसे ही संवाद हुआ। हमने समझा आगाज हुआ।।
उठो के अपनी अपनी भी,
तुम सबकी जबानें है।
समाज के ठेकेदारों की,
आकर्षक दुकानें है।
फंसकर ऐसे मकड़जाल में,
वातावरण बर्बाद हुआ। हमने समझा आगाज हुआ।।
जो नही बोलने देते है,
वे ही आवाज उठाते है।
खाली पेट के वास्ते,
उपदेश के पत्थर लाते है।
ये कैसी आवाजें है!
ये तो निरा उन्माद हुआ। हमने समझा आगाज हुआ
पानी, पलायन, पर्यावरण है,
उखड़े हुए विकास से जन है।
विकराल पहाड़ में बेरोजगारी,
एकमात्र आसरा पर्यटन है।
इस जंगल के कानून से,
क्या जंगल आबाद हुआ। हमने समझा आगाज हुआ।।
तकलीफों के पहाड़ है,
समाधन की खाई है।
बनी हजारों योजनाएं,
सबकी सब खटाई में।
मौंका परस्त सरकारों को,
कब अपना वादा याद हुआ। हमने समझा आगाज हुआ।।
आज कमीशनखोरी से,
जेबें भरने वाली है।
सरकार हमारी सोई है,
कुछ न करने वाली है।
उसको आज जगा दो तुम,
जन जन में आवाज हुआ। हमने समझा आगाज हुआ।।