छपासः एक खुराफाती बीमारी
खबरीलाल
देहरादून। हर काम या मेहनत सिर्फ परिणाम पाने के वास्ते नही की जाती। कई बार वह आत्म मुग्धता एवं आत्म संतुष्टि के लिए भी साकार होती है। वैसे आप भला तो जग भला। दुनिया मानें न मानें, आपका संतुष्ट होना ज्यादा जरूरी होता है।
यही कुछ हो भी रहा है। इसका परिणाम निकलकर यही आता है कि सफलता की दर जीवन में बहुत कम हो गई है। इसे आप बीमारी का साईड इफैक्ट भी कह सकते है। लेकिन छपास रोगी के साथ समस्या है जिसकी वजह से इस बीमारी से पार पाना नामुमकिन हो जाता है। अव्वल तो छपास को रोग मानने को कोई तैयार नही, दूसरा इसकी दवा दारू भी उपलब्ध नही। इसलिए भी लोग बाग कहते सुने जाते है कि छपास जिसे हो गया, उसका तो राम मालिक है।
आदमी काम करता है। नतीजे चाहता है। वह मिल जाये तो उसे प्रसिद्वि भी चाहिये। जग को दिखाना होता है कि वह कितना उपयोगी है। यह उपयोगिता भले ही कृत्रिम हो पर उसे प्रदर्शित करके एक व्यक्ति को आत्मसंतुष्टि मिलती है।
हमारे यहां जिसको कहीं भरोसा नही होता उसे राम भरोसे कहा जाता है। हालांकि यह सकारात्मक बात है। किसी भी तरीके से भक्ति हो रही है। यह अच्छी बात है। वरना आज के दौर में आस्तिक होना बड़ी बात है। वरना तो हर कोई एक दूसरे की मान्यता की बखिया उधेड़ने में लगा हुआ है।
कोई किसी की इज्जत नही करता लेकिन चाहता जरूर है कि सब उसकी इज्जत करें। आलोचना या बुराई करके सब के सब स्वयं को बड़ा सुधरवादी और बुद्विजीवी साबित करने की होड़ मचाये हुए है। तब उनको कबीर की बात समझ नही आती या उसे भूल जाते है कि बुरा जो देखन मै चला, मुझसे बुरा ना कोय। लोग मुझसे बुरा शब्द को शायद तुझसे बुरा समझने लगे है। अन्यथा ऐसी प्रवृति क्योंकर पनपती भला!