उत्तराखंड़ की नियतिः शराब हमेशा यहां की राजनीति के केन्द्र बिन्दु में रहती है!
शराब का विरोध या विरोध के नाम पर नाटक
प0नि0ब्यूरो
देहरादून। कारण चाहे जो हो, यह हमारे प्रदेश की नियति बन गई है कि शराब हमेशा यहां की राजनीति के केन्द्र बिन्दु में रहती है। फिलहाल भी यही हो रहा है। पहले तो प्रदेश सरकार ने शराब के अंधधुंध दाम बढ़ा दिए। तब कोई विरोध नही हुआ लेकिन उसके परिणाम स्वरूप जब एक के बाद एक शराब व्यवसायी धराशायी होने लगे तो सरकार चेती। उसने भूल सुधर हेतु कदम उठाने शुरू किए तो विपक्ष का विरोध चरम पर होने लगा।
यह विड़म्बना ही कही जायेगी कि शराब का कारोबार करने वाले विकट हालात में अपना कारोबार करते है। उन्हें इस धंधे में सपफेद काला सब करना पड़ता है। इसके बावजूद बदनामी हाथ आती है। इस व्यवसाय के लोग सबसे ज्यादा चंदा देते है और राजनीतिक दल का यह सहारा बनते है। यही कारण है कि हर सत्ताधारी दल के यह कृपापात्र बन जाते है। लेकिन सत्ता से उतरते ही वहीं राजनीतिक दल इनको शराब माफिया कहने लगते है।
यह नाइंसाफी ही कही जायेगी। लीगल वे पर कारोबार करने के बावजूद अंडर टेबल हर महीने लाखों की रिश्वत, मुफ्रत की शराब का वितरण आदि आदि। इसके बाद माफिया होने की बदनामी। यदि वास्तव में यह लोग बुरे है तो फिर शराब पर प्रतिबंध ही क्यों नही लगा दिया जाता? वरना यदि यह लीगल है तो शराब कारोबार करने वालों को शराब माफिया कहने पर भी रोक लगनी चाहिये।
यह सर्वविदित है कि प्रदेश में शराब और खनन का काम करने वालों से राजनीतिक दलों को आसरा मिलता रहता है। क्योंकि इन्हीं धंधों में बड़ा मार्जिन पाया जाता था। लेकिन मुर्गी के अंड़े एक ही दिन में निकालने के चक्कर में सरकारों ने इनका अत्याधिक दोहन किया। इससे हुआ यह कि शराब का काम करने वाले जमीन पर आ गये। प्रदेश में शराब की दुकानों का कोई खरीददार नही मिल रहा। आगे भी इस कारोबार की डगर मुश्किल दिखायी देती है।
ऐसे में जाहिर है कि सरकार का शराब के जरिए राजस्व वसूली की योजना को पलीता लगना ही लगना है। वहीं यह भी सच है कि इसके लिए सरकारों ने शराब का सेवन करने वालों की खाल उधेड़ कर रख दी है। ऐसे में सीधी सी बात है कि आप या तो इस कारोबार को बंद कर दो या फिर वाजिब टैक्स लगाओ। लेकिन सरकारों का आचरण इसके विपरीत ही रहा है। यह आचरण दरअसल अवैध शराब बेचने वालों के लिए जाने अंजाने ही सही संरक्षण का काम करता है। वैसे भी उत्तराखंड़ में हमेशा सरकारी और वैध स्तर पर बिकने वाली शराब का ही विरोध होता है। कभी यह नही सुना गया कि अवैध शराब बेचने वाले का विरोध हो रहा है।
प्रदेश के शराब का व्यवसाय करने वाले सबसे ज्यादा जोखिम लेते है और सबसे ज्यादा राजस्व सरकार को कमाकर देते है लेकिन इन्हें कभी इज्जत की नजरों से नही देखा जाता। यदि शराब पीना गुनाह नही, शराब पिलाना गुनाह नही है तो शराब का व्यवसाय करना माफियागिरी कैसे हो गया? जनता को आधी अध्ूारी तस्वीर दिखाकर भड़काने की बजाय विपक्ष को भी विवेक से काम लेना चाहिये।