शिक्षा विकास का महत्वपूर्ण स्तम्भः भाग एक
प्रो0 डा0 मैथ्यू प्रसाद
देहरादून। शिक्षा, मनुष्य को उसकी दुष्ट प्रवृत्ति से मुक्त करने वाली होनी चाहिये। शिक्षा की मूल भावना, विद्यार्थी में अच्छे चरित्र का निर्माण करना है। प्रायः विद्यार्थी अपने माता-पिता में व शिक्षक में अपना रोल मॉडल ढूंढता है। अतः माता-पिता व परिवार के लोगों के साथ-साथ, शिक्षकों को भी आर्दश मॉडल बनना होगा। शिक्षकों को आचार्य, अर्थात अपने आचरण द्वारा विद्यार्थियों को आदर्श दर्शाने होंगे। ‘गुरोस्तु मौन व्याख्यानं शिष्याः संछिन्न संशय’ अर्थात गुरू का चरित्र तथा व्यक्तित्व विद्यार्थियों पर चिरकालीन प्रभाव डालता है। प्राचीन काल में गुरू-शिष्य की परम्परा थी, तथा प्रकृति के सानिध्य में, स्वछन्द वातावरण में, गुरुकुल पद्वति से शिक्षा-दीक्षा होती थी। शिक्षा ग्रहण करना एक साधना होती थी। इसमें किसी तरह के दवाब एवं अवसाद की संभावनाएं बहुत कम होती थीं।
शिक्षा चाहें किसी पद्वति से दी जाये, वह विद्यार्थी को सदाचारी बनानी वाली होनी चाहिये। अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि भौतिक ज्ञान के साथ-साथ, आत्मिक ज्ञान व नैतिक मूल्यों पर विशेष बल दिया जाय, अन्यथा केवल भौतिक ज्ञान अर्जित कर, तकनीकी के प्रयोग से, मनुश्य विध्वंसकारी/विनाशकारी भी बन सकता है।
वास्तव में, सन्तान को अच्छे संस्कार देने का कार्य, घर से ही प्रारंभ हो जाता है। एक कहावत है कि ‘मां को अपनी सन्तान के पांव पालने में ही पता लग जाते है’ यदि बच्चों को शुरू से सदाचार की शिक्षा दी जाये, यह समझाया जाये कि सत्य पर अटल रहना, क्योंकि सत्य ही तुम्हें विजयी बनायेगा, तो बच्चे जीवन भर सत्यता के मार्ग पर ही चलेंगे, और सत्य उन्हें जीवन में संघर्षों का सामना करने का आत्मबल देगा।
जहां तक महिलाओं के मान-सम्मान व अधिकारों का प्रश्न है तो इसमें माताएं, बहनें व पत्नियां आदि महत्वपूर्ण योगदान कर सकती हैं। यदि घर के बालक को बचपन से ही महिलाओं की रक्षा करने, मान-सम्मान व अधिकार देने की शिक्षा दी जाये तो महिलाओं के विरुद्व अपराधें जैसे दुराचार, मारपीट आदि की घटनाओं में खासी कमी आ सकती है।
चरित्र-निर्माण, शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग है जो एक सत्त साधना है। आज के आधुनिक युग में यह जरूरी है कि हम प्राचीन ग्रन्थों में झांकें, जहां व्यक्तित्व-विकास की संकल्पना का उल्लेख है। शिक्षा के भारतीयकरण के साथ-साथ, हमें शिक्षा का वैश्वीकरण भी करना होगा। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि मनुष्य में पहले ही विद्यमान समग्रता को प्रगट करना ही शिक्षा का उद्देश्य है। भौतिकता, आध्यात्मिकता, प्राचीनता तथा आध्ुनिकता का समन्वय ही शिक्षा का एकात्म स्वरूप है।
महात्मा गांधी जी ने कहा था कि शिक्षा का अभिप्राय, व्यक्ति के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में विद्यमान श्रेष्ठ तत्वों का प्रगटीकरण एवं चहुंमुखी विकास से है। शिक्षा, बच्चे की प्रकृति एवं आन्तरिक प्रवृत्तियों के अनुकूल होना चाहिए, यंत्रवत नहीं होना चाहिए। शिक्षा, विश्व की समस्याओं को भारतीय मनीषा एवं वैश्विक दृष्टिकोण से सुलझाने वाली होनी चाहिये। शिक्षा, नवीन की खोज की प्रक्रिया होनी चाहिये, न कि ढले-ढलाए सिद्वांतों एवं प्रारूपों का प्रतिमान। बालक तभी सीख सकता है जब वह भयमुक्त हो। सीखने का अर्थ है, शुद्व अवलोकन। बाहरी अनुशासन रूपी नियंत्रण की जगह भीतरी जिज्ञासारूपी प्रेरणा ही, बच्चों को सीखने का आनन्द दे सकती है। वास्तव में शिक्षा, विखंडन की नहीं अपितु संयोजन की प्रक्रिया है।
महामना मदन मोहन मालवीय एक संतुलित, वैज्ञानिक एवं व्यापक उद्देश्य से संचालित पाठ्यक्रम के पक्षधर थे। उनका मानना था कि पाठ्यक्रम कोई निर्धारित वस्तु नहीं है जो हर समय व हर स्थान पर एक जैसी रहे। हर समाज और देश, अपनी आवश्यकतानुसार पाठ्यक्रम निर्धारित करता है।
स्वामी विवेकानन्द तथ्यों के संग्रह मात्रा को नहीं, परन्तु एकाग्रता को ही शिक्षा का मूल मानते थे। एकाग्रता स्वयं तथ्यों का संकलन कर लेती है। वे कहते थे कि सच्चा गुरु वही है जो अपने को, शिष्यों के स्तर पर ला सके। उनके अनुसार, शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके। हर सामान्य मनुष्य के अन्दर देवत्व एवं दानवत्व, दोनों ही विद्यमान होते हैं। उसके अन्दर विद्यमान देवत्व को जागृत एवं प्रकट करने में सहायता करना ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिये।
शिक्षा में, जीवन का मूल्य सर्वोपरि है, इनका विछोह ही मनुष्य को धर्मभ्रष्ट एवं लक्ष्यभ्रष्ट कर देता है। मानसिक एवं अध्यात्मिक विकास के लिए प्रार्थना से पठन-पाठन की शुरूआत करना लाभकारी होगा। प्रायः स्कूल स्तर पर पठन-पाठन की शुरूआत प्रार्थना से होती है, जबकि उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रायः ऐसा नहीं होता है। मौन प्रार्थना भी एक अच्छा विकल्प है।
शिक्षा संस्थानों में विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों पर नियमित व्याख्यान होना उपयोगी होगा जैसे विकास बनाम पर्यावरण सुरक्षा (समर्थ एवं समृद्ध), भारत (देशभक्ति), अध्यात्मिकता (समय-प्रबन्धन), भारत-विविधता में एकता (आधुनिकरण बनाम पश्चिमीकरण), प्राचीन भारतीय ज्ञान (वैज्ञानिक सोच), श्रम की महत्ता (वैश्वीकरण एवं आर्थिक साम्राज्यवाद), कुप्रथाओं का उन्मूलन (थिंक ग्लोबली एण्ड एक्ट लोकली), भारत के संविधन में निहित नागरिकों के कर्तव्य और अधिकार आदि।
शिक्षा प्रदान करने में शिक्षक की अहम भूमिका होती है। अतः शिक्षक व उसके परिवार के मानसिक, शारीरिक, आत्मिक तथा आर्थिक सेहत का ध्यान रखना परमावश्यक है। वह और उसका परिवार सुखी-सम्पन्न हो, उसके पास मूलभूत सुविधाओं का अभाव न हो, कोई दबाव न हो तभी वह अपना बेहतर से बेहतर प्रदर्शन कर, प्रेम व सम्मान प्राप्त कर सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के भविष्य का निर्माण कक्षा-कक्ष में होता है और उसका शिल्पकार शिक्षक होता है।
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