खुद को जिन्दा साबित करने में लगे 18 साल
लाल बिहारी को सरकारी दस्तावेजों में मृतक घोषिक कर दिया गया था
एजेंसी
आजमगढ़। लाल बिहारी को सरकारी दस्तावेजों में मृत घोषित कर दिया गया और फिर खुद को जिंदा साबित करने में इतनी फजीहत हुई कि उन्होंने अपना उपनाम ‘मृतक’ रख लिया।
आजमगढ़ के अमिलो गांव के रहने वाले लाल बिहारी के पिता का जब देहांत हुआ तो वो एक साल के भी नहीं थे। उनकी मां उन्हें लेकर अपने घर बस्ती चली आईं। लाल बिहारी पढ़ाई लिखाई तो नहीं कर सके लेकिन साड़ी बुनाई का काम सीखकर जीवन-यापन करने लगे।
जब वे 20-21 साल के थे तो उन्होंने बनारसी साड़ी का कारखाना लगाने की सोची। गांव में उनके पिता के नाम से एक एकड़ जमीन थी जिसके लाल बिहारी वारिस थे। जब वह लोन लेने के लिए कागज जुटाने लगे तो पता चला कि 30 जुलाई 1976 को नायब तहसीलदार सदर आजमगढ़ ने उन्हें कागजों में मृत घोषित करके सारी जमीन उनके चचेरे भाइयों के नाम कर दी है।
लाल बिहारी के अनुसार लोग जानते थे कि वो जिंदा हैं, लेकिन कागजी कार्रवाई में कोई पड़ना नहीं चाहता था। सब कुछ जानते हुए भी शुरू में रिश्तेदारों ने भी साथ नहीं दिया और उनकी लड़ाई लंबी होती गई। जब लोगों ने समझने की बजाय लाल बिहारी का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया तो उन्होंने ठान लिया कि अब खुद को जिंदा साबित करके रहेंगे। लोगों ने कोर्ट जाने की सलाह दी। वकीलों से बात की तो पता चला कि जमीन का मामला है, मुकदमा लंबा चलेगा। आजमगढ़ जिले का ऐसा कोई अफसर नहीं बचा जिसके दरवाजे पर उन्होंने दस्तक ना दी हो, न्याय की भीख ना मांगी हो, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई।
दस साल तक कागजों पर जिंदा होने की लड़ाई लड़ते हुए लाल बिहारी जब थक गए तो स्थानीय विधायक श्याम लाल कनौजिया ने उन्हें एक तरीका सुझाया। बात साल 1986 की है। अफसरों के चक्कर काटते-काटते लाल बिहारी थक गये थे। पैसे भी खूब खर्च किए। तभी विधायक ने कहा कि ऐसे नहीं होगा, कुछ हंगामा करो, तब सुनवाई होगी। उनकी बात मानकर वे विधानसभा पहुंचे और दर्शक दीर्घा में बैठे हुए उस वक्त वहां एक पर्चा फेंक दिया जब सदन में किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा हो रही थी।
लेकिन उन्हें हिरासत में ले लिया गया और उनसे घंटों पूछताछ हुई और बाद में उन्हें छोड़ दिया गया। अखबारों में भी यह खबर छपी कि सदन में पर्चा फेंकने वाला युवक गिरफ्रतार हो गया। खुद को जिंदा साबित करने के लिए उन्होंने आजमगढ़, लखनऊ और दिल्ली में 100 से ज्यादा बार धरना दिया। दिल्ली में तो एक बार लगातार 56 घंटे तक अनशन भी किया लेकिन राजस्व विभाग उन्होंने जिंदा मानने को तैयार ना हुआ।
उन्होंने अपनी पत्नी के नाम से विधवा पेंशन का फार्म भी भरा, लेकिन वह भी रिजेक्ट हो गया। साल 1988 में इलाहाबाद से पूर्व पीएम वीपी सिंह और कांशीराम के खिलाफ चुनाव लड़ा। साल 1994 में लाल बिहारी को आजमगढ़ के मुख्य विकास अधिकारी ने अपने दफ्रतर बुलाया और उनकी समस्या सुनी।
पहली बार गंभीरता से किसी ने उनकी बात सुनी थी। सीडीओ ने दो हफ्रते के भीतर उन्हें दस्तावेजों में जीवित कर दिया। लेकिन समस्या अभी खत्म नहीं हुई थी। जब सीडीओ ने उनके जिंदा होने की रिपोर्ट दी तो वो रिपोर्ट तहसील से ही गायब हो गई। लेकिन रिपोर्ट फिर ढूंढ़ी गई और आखिरकार 30 जून 1994 को कागजों पर लाल बिहारी को जिंदा घोषित कर दिया गया। कागजों पर वे जिंदा हो गये लेकिन मृतक के तौर पर उन्होंने लंबा संघर्ष किया कि अब वही उनकी पहचान बन गई और उसके बाद से उन्होंने वही उपनाम रख लिया।
इस लड़ाई में जो कुछ भी उनके पास था, वह सब बिक गया। यही नहीं दस्तावेजों में जिंदा साबित होने के बाद उन्होंने वह जमीन भी उन्हीं चचेरे भाइयों को वापस कर दी जिन्होंने उस जमीन के लिए लाल बिहारी को मृत बना दिया था। यह समस्या सिर्फ उन्हीं की नहीं थी बल्कि उस इलाके में ऐसे हजारों लोग हैं जिन्हें जमीन हड़पने के मकसद से उनके सगे-संबंधियों ने सरकारी दस्तावेजों में मृत घोषित करा रखा है।
64 वर्षीय लाल बिहारी अब उन्हीं लोगों की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने साल 1980 में मृतक संघ बनाया और अपने साथ सैकड़ों अन्य लोगों को भी न्याय दिला चुके हैं।
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