साधु-संतों का आपस में बिल्ली-बंदर की तरह झगड़ना किसी भी तरह शोभनीय नही
कुंभ से पहले अखाड़ों का तमाशा और तकरार जारी!
प0नि0ब्यूरो
देहरादून। आजकल रोजाना कुंभ मेले की खबरें सुर्खियां बनती रहती है। लेकिन यह खबरें मेले की व्यवस्थाओं को लेकर कम बल्कि अखाड़ों के विवादों को लेकर ज्यादा सुर्खियों में रहती है। ऐसे में कई बार सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि यह साधु महात्मा है या.....।
कुंभ मेले का आगाज होने वाला है। इसकी तैयारियों को लेकर सरकारी स्तर पर हलचल तेज है लेकिन मेले में सबसे अहम भागीदारी करने वाले साध्ु समाज में सिर फुटव्वल मची हुई है। रोज एक नया विवाद सामने आ जाता है। इन विवादों के कारण साधु-संतों की छवि पूरे विश्व में धूमिल हो रही है। लेकिन इस जमात को इसकी कोई परवाह नहीं है। कहां तो इनको भी सरकार की तरह मेले की व्यवस्था में जुट जाना चाहिये था लेकिन यह बिरादरी कोई जिम्मा उठाने को तैयार नहीं दिखता सिवाय विवादों को हवा देने के। लोगों को धर्म की राह दिखाने वाले खुद जैसे अधर्मी कृत्य कर रहें है।
हालिया दिनों में हरिद्वार कुंभ को लेकर प्रयागराज में हुई अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद की बैठक में किन्नर अखाड़ा और परी अखाड़े पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अखाड़ा परिषद के इस फैसले के बाद अखाड़ा परिषद में दो फाड़ नजर आने लगे है। एक तरफ अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्र गिरि परी अखाड़ा और किन्नर अखाड़ा को प्रतिबंध करने की बात कर रहे हैं तो वहीं अखाड़ा परिषद के महामंत्री हरि गिरि किन्नर अखाड़े का समर्थन कर रहें है।
हालांकि विवाद को बढ़ता देख किन्नर अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का साफ कहना है कि हरिद्वार कुंभ में किन्नर अखाड़ा जूना अखाड़े के साथ शाही स्नान करेगा। लेकिन यह केवल किन्नर अखाड़े का विरोध मात्र नहीं है। दरअसल पूरा मामला अपने वचर्स्व को कायम रखने का है। इसलिए अपने को उफपर दिखाने और दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयोग अखाड़ों के बीच हो रहा है। जबकि किन्नरों का मामले का तो बेजा इस्तेमाल हो रहा है।
यह परम्परा या सिद्वांतों का संघर्ष मात्र नहीं है बल्कि इसके पीछे कुंभ जैसे आयोजनों के दौरान बरसने वाला वैभव है। फिर उक्त वैभव उसी अनुपात में मिलेगा जितना जिसके पास सामर्थ्य दिखाई देगा। यहीं वजह है कि कोई भी उसे खोना नहीं चाहता।
क्योंकि इस अवसर को खोने का अर्थ हुआ अगले बारह साल का इंतजार करना। इतना धैर्य किसके पास होता है भला! लेकिन आपसी जुतम पैजार की वजह से केवल साधु-संत ही बदनाम नहीं होते, बल्कि इससे पूरे सनातनी परम्परा का उपहास होता है। लेकिन कोई भी हाथ आये अवसर को गंवाना नहीं चाहता इसलिए बिल्ली बंदर की तरह आपस में झगड़ रहें है। यह प्रवृति किसी भी तरह शोभनीय नही है।
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