स्कूलों की फीस पर असंगत फैसला
प0नि0ब्यूरो
देहरादून। प्रदेश में सरकार ने स्कूल फीस को लेकर जो निर्णय लिया है वो असंगत है क्योंकि प्रदेश सरकार ने स्कूलों का तो ख्याल रखा लेकिन अभिभावकों के हितों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया। वहीं प्रदेश सरकार का अभिभावकों का सक्षम या अक्षम के तौर पर वर्गीकरण करने का निर्णय भी हैरान करने वाला है। कोरोना काल में वह एपीएल या बीपीएल तलाश रही है। यदि इसी तरह वह स्कूलों को भी इस हैसियत से देखती तो बेहतर होता। अभिभावकों की तरह उसे स्कूलों को भी देखना चाहिये कि कौन से स्कूल कोरोना की मंदी को झेल सकते है और कौन से नहीं। दरअसल प्रदेश सरकार का यह निर्णय पूरी तरह से एक्ट आफ गाड के लिहाज से गलत है।
आज के दौर के स्कूल समाजसेवा के लिए नहीं बने है। यह उनका व्यवसाय है। कोरोना काल में कौन सा फील्ड ऐसा है जहां पर इस महामारी की मार नहीं पड़ी है। तो क्या सरकार हर किसी को बेलआउट दे सकती है? नहीं, तो स्कूलों की पैरवीकार बनकर प्रदेश सरकार क्यों अभिभावकों की जेब में डाका पड़वा रही है? आज के उपभोक्तावाद का सीध सा फंडा है कि सेवा के बदले भुगतान। जब स्कूल खुले ही नहीं, यानि स्कूलों ने सेवा दी ही नहीं तो फीस किस बात की? हालांकि आनलाइन पढ़ाई के नाम पर प्रदेश भर में स्कूलों द्वारा अभिभवकों को ठगा जा रहा है लेकिन सरकार मूकदर्शक बनी रहती है। परन्तु जब स्कूलों द्वारा वसूली की बात आती है तो प्रदेश सरकार स्कूलों की पैरवी के लिए आगे आ जाती है। यह रवैया निराशाजनक है।
हैरानी की बात है कि आखिर प्रदेश सरकार स्कूलों के लिए इतना चिंतित क्यों है और उसे ऐसी ही उदारता अभिभावकों संग बरतने में ऐतराज क्यों होता है? कायदा तो यह बनता था कि यदि सरकार को स्कूलों की चिंता थी तो वह खुद बच्चों की फीस भर देती। अपने कर्मचारियों को तो वह समय से तनख्वाह दे नहीं पा रही और प्राइवेट सैक्टर से कहा जा रहा है कि वेतन समय पर दो। वर्करों को काम से मत निकालो। जबकि सरकार इसके विपरीत काम कर रही है। जबकि उसे पहले उदाहरण पेश करना चाहिये था। कोरोना काल को दृष्टिगत सरकार को घाटे को बराबर में बांटना चाहिये था कि कुछ स्कूल झेले, कुछ अभिभावक झेल लें और बाकी सरकार खुद वहन कर लेगी। लेकिन सरकार डंडा तो देना जानती है जिम्मेदारी निभाना नहीं चाहती।
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