देश में करीब तीन हजार फार्मास्यूटिकल कंपनियां में से 90 फीसदी से ज्यादा निजी कंपनियां
दवाई की एमआरपी का खेल
प0नि0ब्यूरो
देहरादून। देश में करीब तीन हजार फार्मास्यूटिकल कंपनियां दवाई हैं जिनमें 90 फीसदी से ज्यादा निजी कंपनियां हैं। दवाई अपने असली दाम से 2000 फीसदी ज्यादा तक बिक रही हैं। लोगों से मनमाना पैसा वसूला जा रहा है। सरकार को इसका एहसास 1996 में हुआ। तब एक एसेंशियल मेडिसिन की लिस्ट बनाई गई जिसमें 289 सबसे ज्यादा जरूरी दवाइयों के दाम सुधारने की बात कही गई। सरकार ने 1997 में नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथारिटी एमपीपीए बनाकर कहा कि दवाई के दाम सुधारने की कवायद शुरू की।
एनपीपीए ने 2005 से ड्रग प्राइस कंट्रोल आर्डर डीपीसीओ के तहत दवाइयों की एमआरपी तय करना शुरू किया। दवाई की दो कैटेगरी है। एक एसेंशियल ड्रग और दूसरी नान एसेंशियल ड्रग। सरकार ने कहा कि मल्टीविटामिन, कपफ सिरप, टानिक इन सब नान एसेंशियल मेडिसिन के दाम पर वह काम नहीं कर सकती। उसका पूरा फोकस एसेंशियल ड्रग पर है।
2018 तक सरकार ने 874 एसेंशियल ड्रग चुन लिए और इसकी एमआरपी तय करने लगी। ये जबकि देश में 10,000 से ज्यादा दवाइयां बनाई और बेची जाती हैं। 874 को छोड़कर बाकी को पफार्मा कंपनियां मनमापिफक दामों पर बेच रही हैं। सरकार ने एरिया के हिसाब से अपने ड्रग इंस्पेक्टर नियुक्त किए हुए हैं। वे फार्मा कंपनियों के पास जाते हैं, दवा में लगने वाले कच्चे माल का मुआयना करते हैं। इसके बाद बाजार भाव के हिसाब से कंपनी का मुनाफा, सरकारी नियम के अनुसार 16 फीसदी डिस्ट्रीब्यूटर मार्जिन, 8 फीसदी रिटेलर मार्जिन जोड़ते हैं और एमआरपी तय कर देते हैं। उससे ज्यादा कैमिस्ट ग्राहक से पैसा नहीं ले सकता।
इस सिस्टम के लगाने के बाद एनपीपीए ने मार्च 2017 में एक ट्वीट कर बताया कि अथारिटी के प्रयासों से कैंसर की दवाओं की कीमत 10 से 86 फीसदी तक कम हो गई। डायबिटीज की दवाएं भी 10 से 42 फीसदी तक सस्ती हो गईं। तो 2017 तक कैंसर और डायबिटीज की दवाएं 86 फीसदी ज्यादा दाम पर बेची जाती रहीं।
सरकारी सिस्टम एनपीपीए पहले से काम कर रहा था, लेकिन योजना आयोग अब नीति आयोग ने 2008 में प्रधानमंत्री कार्यालय को चिट्ठी लिखकर दवाई के दामों पर लगाम लगाने को कहा। कोरोना काल में आइवरमेक्टिन टैबलेट जैसी दवाइयां 195 के बजाय 350 में बेची गईं। सरकार ने जो 875 दवाइयों की लिस्ट बनाई है, उनकी कीमत अब भी ठीक नहीं है। पिछले साल निजामाबाद चैंबर आपफ कामर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष पीआर सोमानी ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को पत्र लिखकर कहा कि एसेंशियल दवाओं को अब भी असली दाम से 500 से 2000 फीसदी ज्यादा पर बेचा जा रहा है। यदि सरकार काम करे तो दवाई के दाम 8 गुना तक कम कर सकती है।
किसी भी दवाई को बनाकर मार्केट में लाने के लिए पफार्मा कंपनियों को कई स्टेप से गुजरना होता है। यदि इन स्टेप पर ध्यान दिया जाए तो फर्क पड़ेगा, नहीं तो दवाइयों के दाम कम नहीं होंगे। अभी ड्रग कंट्रोलर के आफिस में जो लोग दवाइयों को पास करते हैं, उनमें कुछ डाक्टर होते हैं, कुछ फार्माकोलाजी वाले और कुछ फार्मासिस्ट लाबी काम करती है। सरकार की कमेटी में लोगों को मार्केट का अंदाजा नहीं, वे घर में बैठ कर काम करते हैं।
इसी तरह केमिकल एंड फर्टिलाइजर मिनिस्ट्री में कुछ सरकारी डाक्टर हैं, उन्हें जमीनी हकीकत का अंदाजा नहीं होता। फिर स्वस्थ्य मंत्रालय कहता है कि दवाई में नई चीजें क्यों नहीं डाली गईं। हमारी दवाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर की होनी चाहिए। उनके मुताबिक जब दवाई उपलब्ध नहीं है। साल्ट का काम्बिनेशन उपलब्ध नहीं है। फार्मा कंपनी कैसे वो बना देंगी। इन सब पेंचों के बाद कंपनियां जो दवाइयां बना रही हैं, उनके बारे में सही कहें तो 90 फीसदी डाक्टरों को पता नहीं कि मरीज के लिए सबसे सही दवा क्या होगी।
अब बहुत से डाक्टर किसी खास कंपनी की ही दवाई लिखने के लिए 40 फीसदी तक कमीशन लेते हैं। डाक्टर अपनी पढ़ाई और मरीज का रोग देखकर नहीं, कौन सी कंपनी ज्यादा कमीशन देगी, ये देखकर दवाई लिख देते हैं। इसीलिए आजकल फार्मा कंपनियां डाक्टरों को विदेशी ट्रिप कराती है, महंगे गिफ्रट देतीं है!
आज 90 फीसदी से ज्यादा दवाई निजी कंपनियां बनाती हैं। यदि सरकार मेडिकल के क्षेत्रा में खुद को आगे बढ़ाए तो अभी मरीज जितना खर्च करते हैं उसके 10 फीसदी में ही उनका इलाज हो जाएगा। आज भी ऐसी दवाइयां बन रही हैं, जिनमें साल्ट काम्बिनेशन ठीक नहीं है। उनके खाने से कोई फायदा नहीं होता। कंपनियां चीन से पाउडर मंगाकर गोली बना रही हैं, जोकि कचरा हैं।
एसेंशियल चीजों को लेकर सरकार ने कदम उठाए लेकिन नान एसेंशियल जैसे सीरिंज पर मार्जिन 700 से 800 फीसदी ज्यादा होते हैं। सीरिंज पर कंपनियां मन माफिक दाम प्रिंट करती हैं। नसों में डाली जाने वाली छोटी ट्यूब स्टेंट की पूरी यूनिट 14,000 रुपये में भारत आ जाती थी। लेकिन आम लोगों को ये 1.05 लाख तक में बेचा जाता था। अब इस पर लगाम लगी है। ऐसे ही दूसरी नान एसेंशियल चीजों पर ध्यान देना होगा। हालांकि आरोप लगते है कि यह मल्टी-बिलियन डालर्स का खेल है इसलिए सरकारें खामोशी रहती है।
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