हिमालय की नैसर्गिक सुंदरता और सैलानियों की श्रद्वा के संगम का पवित्र स्थल पाताल भुवनेश्वर
गुफा के बाहर देवदार की छटाओं के बीच पंचाचूली एवं नंदादेवी की गगनचुम्भी चोटियों के दर्शन करते हैं सैलानी
- पवन नारायण रावत
गंगोलीहाट। उत्तराखंड देवभूमि है। यह ऐसे ही नहीं कहा जाता। यहां के कोने-कोने में देवी-देवताओं का वास है। प्राकृतिक सुंदरता से सराबोर गगनचुम्बी हिमालय की चोटियां मन मोह लेती हैं। कल-कल करती मदमस्त बहती नदियां पुकारती हुई नजर आती हैं। अपनी ही धुन में खोये झरने अपनी खूबसूरती और संगीत से प्रकृति की गोद में हृदय से अभिनंदन करते हैं। वहीं एक से बढ़कर एक ऐतिहासिक पौराणिक एवं धार्मिक पर्यटन स्थल प्रकृति के सानिध्य में कुछ ऐसा ही अहसास करवाते हैं। ये सब वास्तव में देवभूमि की अनमोल धरोहर हैं।
प्रकृति की सुन्दर प्राकृतिक छटाओं के बीच पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देने वाला ऐसा ही धार्मिक पर्यटन स्थल है- पाताल भुवनेश्वर।
दूर-दूर से सैलानी सम्पूर्ण आस्था के साथ यहां जमीन के नीचे गुफा में स्थित भगवान शिव के मन्दिर परिसर में दर्शन लाभ करने पहुंचते हैं। सीमान्त जनपद पिथौरागढ़, जिसे उत्तराखंड के मिनी कश्मीर के नाम से भी जाना जाता है, के गंगोलीहाट तहसील मुख्यालय से 16 किमी दूरी पर स्थित भुवनेश्वर में स्थित है यह पवित्र गुफा। समुद्र तल से 1350 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह गुफा प्रवेश द्वार से 160 मीटर लंबी एवं 90 मीटर चौड़ी है। इसी गुफा के अन्दर भगवान भोलेनाथ के पुण्य दर्शन लाभ हेतु श्रद्वालु सम्पूर्ण आस्था के साथ यहां पहुंचते हैं।
जमीन में नीचे की तरफ स्थित गुफा के बारे में बताया जाता है कि त्रेतायुग में सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्ण द्वारा इस गुफा की खोज की गयी थी। द्वापर युग में पांडवों द्वारा यह गुफा खोजी गयी। कलयुग में प्रथम आदिगुरु शंकराचार्य 822 ईसवी में यहां पहुंचे। बारहवीं शताब्दी में चंद राजाओं द्वारा आगे इसकी व्यवस्था की गयी।
गुफा में प्रवेश द्वार से ही एक संकरे मार्ग से होकर प्राकृतिक चट्टानों के सहारे बनी सीढ़ियों से होते हुए नीचे की तरफ जाना पड़ता है। यह मार्ग पत्थरों के बीच से होता हुआ आगे की तरफ बढ़ता है। सावधानीपूर्वक इसमें आगे बढ़ा जा सकता है। सभी श्रद्वालु एक-एक कर एक दूसरे का हौंसला बढ़ाते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। गुफा के गाइड इसमें पूरी मदद करते हैं एवं उन्हीं के मार्गदर्शन में अन्दर पहुंचते ही बायीं तरफ से गुफा की यात्रा प्रारम्भ होती है।
यह धरती शेषनाग पर टिकी हुई है। गुफा में आगे बढ़ते हुए हम शेषनाग के मुखद्वार में आगे बढ़ रहे हैं। ऐसा माना जाता है। शुरुआत में एक कुंड के दर्शन होते हैं। जिसके बारे में बताया जाता है कि राजा जन्मेजय ने अपने पिता परीक्षित के उद्वार हेतु एक सर्पयज्ञ किया था। जिसमें सभी सर्प शामिल हुए थे। सिर्फ एक रह गए थे। गुफा की दीवारों पर तक्षक सर्प की आकृति भी देखी जा सकती है। इसके आगे शिलारूप में भगवान गणेश का विच्छेदित शीश भी देखा जा सकता है। जिसके ऊपर 108 पंखुड़ियों वाला ब्रह्मकमल स्थित है। यह भगवान शिव द्वारा स्थापित किया गया। ब्रह्मकमल से दिव्य जल की बूंदें गणेश जी के शीश पर गिरती हुई देखी जा सकती हैं। बताया जाता है कि शीश पुनर्स्थापित होने तक ब्रह्मकमल से गिरने वाली बूंदों के कारण विच्छेदित शीश सुरक्षित और संरक्षित रह पाया।
मान्यता है कि गुफा स्थित मंदिर परिसर में चार द्वार हैं। रणद्वार, पापद्वार, धर्मद्वार और मोक्षद्वार। रावण की मृत्यु के बाद पापद्वार बंद हो गया एवं कुरुक्षेत्र की लड़ाई के बाद रणद्वार। मोक्षद्वार के आगे पुष्पनिर्मित एक पारिजात वृक्ष है जिसे भगवान श्रीकृष्ण द्वारा द्वापरयुग में देवराज इंद्र की अमरावती पुरी से लाया गया बताया जाता है।
गुफा में कुछ आगे बढ़ने पर बायीं तरफ ऊपर की ओर एक छोटी गुफानुमा आकृति में एक महर्षि तपस्यारत दिखाई देते हैं। बताया जाता है कि वे मार्कण्डेय ऋषि हैं और आगे बायीं ओर ऊपर की तरफ से नीचे लटके हुए चमकीले पत्थर नजर आते हैं। ये शिवजी की जटाएं हैं। आगे बढ़ने पर एक पवित्र जलयुक्त सप्तकुण्ड भी देखा जा सकता है। कुंड के समीप ही तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की प्रतीकात्मक आकृतियों के दर्शन होते हैं। कुंड के नजदीक ही एक हाथनुमा आकृति भी दिखाई देती है जोकि भगवान विश्वकर्मा की बताई जाती है। इसी स्थान पर ऊपर एक हंस की आकृति भी नजर आती है जिसकी गर्दन पीछे की तरफ मुड़ी हुई है। बताया जाता है कि कुंड का जल हंसों के अलावा कोई ना पी सके इसके लिए भगवान शिव ने हंस को नियुक्त किया पर एक बार हंस ने स्वयं ही कुंड का जल पी लिया। जिस कारण भगवान शिव से मिले श्राप के कारण उसका मुंह पीछे की तरफ हो गया।
गुफा में आगे की तरफ शिवलिंग के दर्शन किये जा सकते हैं। नजदीक ही सप्तऋषि मंडल के दर्शन होते हैं। एक स्थान पर बद्रीनाथ, केदारनाथ एवं अमरनाथ के शिलारूप दर्शन किये जा सकते हैं। गुफा की वापसी में सौ पैर वाले ऐरावत हाथी के दर्शन किये जा सकते हैं।
हल्द्वानी से पवित्र गुफा के दर्शन करने श्रद्वालु डा0 ममता पाठक सपरिवार यहां पहुंची हैं। वे बताती हैं कि लम्बे समय से पाताल भुवनेश्वर की पावन गुफा के दर्शन की इच्छा थी, अब पूरी हुई है। उनके साथ उनकी दोनों बेटियों ने भी अपनी मां का हाथ पकड़कर बड़ी ही श्रद्वा से गुफा की यात्रा पूरी की। वहीं डीडीहाट से श्रद्वालु गिरीश पांडे भी सपरिवार दर्शन करने पहुंचे हैं। गिरीश बताते हैं कि वे पहले भी यहां आ चुके हैं। यहां आकर इतना सुकून महसूस करते हैं कि अबकी बार बच्चों को भी साथ लाये हैं। देहरादून से आयी सैलानी ज्योति भी यहां आकर गदगद हैं। वे प्राइमरी में पढ़ने वाले अपने दोनों बच्चों सहित तीन बार यहां दर्शन कर चुकी हैं। उनका कहना है कि गुफा में बाहर से लगता है कि कैसे जायेंगे परन्तु जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं बड़ी ही आराम से यात्रा पूरी हो जाती है, यह सब बाबा भोलेनाथ जी की कृपा है।
गुफा स्थित मंदिर कमेटी में वरिष्ठ सदस्य एवं लगभग तीन दशक से भी अधिक समय से जुड़े हुए भुवनेश्वर निवासी उमेद भंडारी बताते हैं कि इतने लंबे समय तक गुफा के अन्दर हर मौसम में पूजा अर्चना की है। सदैव भोलेनाथ की कृपा बनी रही है। इसी कृपा के कारण देश-विदेश में हर जगह से श्रद्वालु पवित्र गुफा के दर्शन करने आते हैं।
वर्तमान में सम्पूर्ण गुफा परिसर 2007 से भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरेख में है। देवदार के सुन्दर घने जंगलों के बीच स्थित यह सुन्दर धार्मिक पर्यटन स्थल विश्वभर के सैलानियों के लिए उत्तराखंड में धार्मिक पर्यटन एवं आस्था का महत्वपूर्ण केंद्र बिंदु है।
लाक डाउन ने जहां पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्रत में लिया है वहीं इसका व्यापक असर उत्तराखंड के समस्त पर्यटन पर भी पड़ा है। शायद वर्तमान में प्रकृति भी हमें इसके द्वारा कुछ सन्देश दे रही है और हमें भी समझने की आवश्यक्ता है। पर निश्चित रूप से स्थितियां सामान्य होते ही उत्तराखंड का पर्यटन भी सामान्य होगा और फिर पाताल भुवनेश्वर की पवित्र गुफा और यहां का मनमोहक वातावरण आप सभी के स्वागत में प्रकृति की सुन्दर छटाओं के साथ एकदम तैयार मिलेगा। इस उम्मीद में कि जब आप यहां आयें तो अपने आप को भुला दें और प्रकृति से एकाकार हो जाएं। बिल्कुल खो जायें, आप आयेंगे ना!
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