शराब पीना बुनियादी अधिकार है!
कई राज्यों में शराब बेचने और पीने की मनाही
शराब पर पाबंदी से जुड़ा कानून मनमाना है क्योंकि यह घर में बैठकर शराब पीने के अधिकार से लोगों को वंचित रखता है
प0नि0डेस्क
देहरादून। गुजरात हाईकोर्ट में याचिकाएं लगी हैं कि शराब पीने को भी राइट टु प्राइवेसी के तहत बुनियादी अधिकार माना जाये। 70 साल में पहली बार गुजरात के शराबबंदी कानून को चुनौती मिली है। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की शराबबंदी के पक्ष में दलीलों को खारिज कर दिया। 12 अक्टूबर की तारीख तय की है ताकि इस मसले पर अंतिम सुनवाई कर फैसला सुना सके। हालांकि फैसले को राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की तैयारी कर रही है।
गुजरात हाईकोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल हुई है, जिनमें गुजरात प्रोहिबिशन एक्ट 1949 के तहत राज्य में शराब बनाने, बेचने और पीने पर पाबंदी को चुनौती दी गई है। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की इन याचिकाओं पर उठाई आपत्ति को खारिज कर दिया। याचिकाओं में कहा गया है कि शराब पर पाबंदी से जुड़ा कानून पूरी तरह से मनमाना है। यह घर में बैठकर शराब पीने के अधिकार से लोगों को वंचित रखता है। यानी राइट टु प्राइवेसी का उल्लंघन करता है।
इन याचिकाओं के जवाब में राज्य सरकार ने कोर्ट में कहा कि 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने शराबबंदी कानून को कायम रखा था। इसे चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई की जरूरत नहीं है। याचिका कर्ताओं का कहना है कि 1951 में राइट टु प्राइवेसी नहीं था। यह तो सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने 2017 में दिया है। इस आधार पर अब अपने घर में बैठकर चारदीवारी में शराब पीने का अधिकार भी दिया जा सकता है।
1951 में सुप्रीम कोर्ट ने बाम्बे प्रोहिबिशन एक्ट 1949 के प्रावधानों पर फैसला सुनाया था। उस समय गुजरात बाम्बे स्टेट का हिस्सा था। इस कानून के सेक्शन 12 और 13 के तहत शराब बनाने, बेचने और पीने पर पाबंदी थी। भाषा के आधार पर बाम्बे स्टेट महाराष्ट्र और गुजरात में बंटा। तब 1960 में गुजरात ने इस कानून को जस का तस लागू किया।
1951 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्टेट आफ बाम्बे बनाम एफएन बलसारा कहा जाता है। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार को नुकसान देने वाले पेय को बनाने, बेचने और पीने पर पाबंदी लगाने का अधिकार है। 2017 में राइट टु प्राइवेसी देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद याचिकाएं दाखिल होने लगी थीं। 2019 में पांच और याचिकाएं दाखिल हुईं। 2020 में दो सिविल एप्लिकेशन दाखिल हुई।
क्या शराब पीना बुनियादी अधिकार है! बिहार सरकार ने 5 अप्रैल 2016 से शराब बेचने और पीने पर पूरी तरह पाबंदी लगाई। बिहार हाईकोर्ट की डिविजन बेंच ने 30 सितंबर 2016 को अपने आदेश में इस कानून के विरोध में फैसला सुनाया। इसी फैसले में सवाल उठा कि क्या शराब पीना बुनियादी अधिकार है?
एक साल बाद 2017 में केरल हाईकोर्ट ने कहा कि किसी व्यक्ति का शराब पीने का अधिकार राइट टु प्राइवेसी का हिस्सा हो सकता है, पर इस दलील के आधार पर सरकार को इस पर पाबंदी लगाने के अधिकार से नहीं रोका जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि क्या पीना है और क्या खाना है, यह संविधान के आर्टिकल 21 के तहत उसका अधिकार है। यह जीने और व्यक्तिगत आजादी से जुड़ा अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट के 2017 के फैसले में राइट टु प्राइवेसी को इससे जोड़ा गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि अगर नागरिकों को किसी अधिकार से वंचित किया जा रहा है तो उसका आधार मजबूत होना चाहिए। राइट टु प्राइवेसी का पफैसला जिसके आधार पर शराब पीने के अधिकार का दावा हो रहा है। 24 अगस्त 2017 को सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संविधान बेंच ने अपने फैसले में राइट टु प्राइवेसी को बुनियादी अधिकार करार दिया था। साथ ही इसे संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जायज ठहराया था।
उस समय अटार्नी जनरल ने दलील दी थी कि शराब पीने और बेचने को राइट टु प्राइवेसी कहकर बुनियादी अधिकार नहीं बना सकते। इस तरह की आशंकाओं को दूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर सरकार किसी अधिकार से वंचित रखती है तो उसके पीछे उसका इरादा नेक होना चाहिए। अगर वह संवैधानिक आधार पर कोई व्यापक फैसला लेती है तो उसे मान्यता देने में कोई हर्ज नहीं। सरकारें भी शराबबंदी के लिए यही दलील दे रही हैं कि ऐसा करने से समाज की व्यापक भलाई होगी।
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