इस सदी का सबसे बड़ा मजाक- दुश्मन है आईएसआईएस खुरासान और तालिबान
तालिबान और आईएसआईएसः एक थैली के चट्टे-बट्टे
प0नि0ब्यूरो
देहरादून। इस बात को लेकर बड़ी बड़ी थ्योरियां पेश की जा रही है कि तालिबान और आईएसआईएस खुरासान एक दूसरे के दुश्मन है। कहीं कहीं पर तो अलकायदा को भी तालिबान का विरोधी बताया जा रहा है। लेकिन यह सब एक मजाक से ज्यादा कुछ नहीं है। कामन संेस की बात है कि इन तमाम आतंकी संगठनों के बीच एक बड़ी समानता यह है कि यह सभी दुनिया में इस्लामी राज कायम करना चाहते है। इन सभी का मकसद दुनिया भर में शरिया का कानून लागू करना है।
इसके अलावा एक सबसे अहम बात यह भी कि इन सभी आतंकी संगठनों का सरगना और जनक पाकिस्तान ही है। उसी के यहां, उसी के द्वारा उक्त इस्लामिक संगठन दुनिया भी में एक मजहब के नाम पर आतंक फैलाते है। चूंकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में कुछ मजबूरियां है इसलिए पाकिस्तान उससे बचने के इन सभी आतंकी संगठनों को एक दूसरे से जुदा बताता है। ताकि एक पर प्रतिबंध लगे तो दूसरा आंतकी संगठन अपना काम करता रहे। इस बात से कोई अंजान नहीं कि अलकायदा से लेकर आईएसआईएस जैसे खूंखार आतंकी संगठन पाकिस्तान में ही फलते फूलते रहें है।
दरअसल पाकिस्तान दुनिया भर के मुस्लिम देशों के नेता के तौर पर उभरना चाहता है। एक प्रगतिशील राष्ट्र के तौर पर तो ऐसा संभव नहीं है। इसलिए उसके इरादों के शार्टकट के तौर पर आतंकवाद के जरिए आगे जाने का रास्ता बचता है। फिर आतंक का पाकिस्तान मास्टर है। इसके बावजूद जेहादी मानसिकता के लिए उसे देवबंदी विचारधारा का भारत से आयात करना पड़ता है। हमारे देश की लचर राजनीति और कानून व्यवस्था में ऐसे अलगाववादी विचारों को पर्याप्त खाद पानी मिलता रहता है। लेकिन राजनीति के नाम पर अतिवादी लोग देशविरोधी विचारधारा के बावजूद हर बार बच निकलते है।
आज अफगानिस्तान विश्व का सबसे अशांत इलाका बन गया है। जहां पर कुछ भी सुरक्षित नहीं रह गया है। काबुल में बम धमाके के बाद आईएसआईएस खुरासान चर्चा में है। सैकड़ों अफगान नागरिकों के साथ साथ एक आत्मघाती हमले में एक दर्जन से ज्यादा अमेरिकी सैनिक भी मारे गए। लेकिन हैरानी की बात है कि तालिबान ने अमेरिका पर तो आंखें तरेरी कि उनके अंदरूनी मामले में दखल न दे लेकिन हमले की निंदा उसने नहीं की।
ठीक इसी तरह भारत के उन तमाम मुस्लिम संगठनों के भी मुंह सिल गए जो अक्सर इस बात का रोना रोते है कि उनकी देशभक्ति को शक की निगाह से देखा जाता है। कुछ यहीं हाल हमारे देश के वामपंथियों का भी है जो मानवाधिकारों की बड़ी बड़ी बात करते है लेकिन तालिबान के खिलाफ दो शब्द बोलने से उनको परहेज रहता है। कपोल काल्पनिक हिन्दू आतंकीवाद उनके लिए चिंता का विषय है परन्तु तालिबानी अत्याचार और देवबंदी विचारधारा से उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। आखिर यह किस तरह का इंसाफ है जो मौके और नजाकत के हिसाब से तय किया जाता है।
वैसे भी हमारे देश में दुनिया भर की हवा से जुदा हवा बहती है। भारत ही एकमात्र देश है जहां पर बहुसंख्यकों का अल्पसंख्यक कानूनी तौर पर उत्पीड़न करते है। तो क्या हमारे यहां जिसकी लाठी उसकी भैंस का फार्मूला कामयाब नहीं है! दुनिया में लोकतांत्रिक व्यवस्था किसी भी देश की ताकत बन जाती है लेकिन हमारे यहां यह एक कमजोरी बनकर खड़ी हो गई है। यहां लोकतंत्र को भीड़/भेड़ तंत्र बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है। देश के अल्पसंख्यक समूह वोट बैंक बनकर बहुसंख्यकों पर राज कर रहें है।
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