दूसरों के लिए समस्या बनते किसान!
नकली अन्नदाताओं से आम लोगों के हितों की रक्षा करें सरकार
प0नि0ब्यूरो
देहरादून। कृषि कानूनों के विरोध में जब किसान संगठन सड़कों पर उतरे, तब उन्हें अन्नदाता कहा गया। लेकिन बीते आठ महीनों में किसान संगठनों ने आम नागरिकों के समक्ष जैसी समस्याएं खड़ी की हैं, उसे देखते हुए उन्हें मुसीबतदाता कहा जा रहा है। यह संगठन न केवल दिल्ली की सीमाओं को घेरकर बैठे हैं, बल्कि उनका धरना-प्रदर्शन दिल्ली की सीमाओं के अलावा भी जारी हैं। उनके कारण लोगों को समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है। संकट केवल यह नहीं कि लोगों को आने-जाने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि यह भी है कि बहुत से लोगों की रोजी-रोटी के सामने भी संकट खड़ा हो गया है।
किसान संगठन सड़क खाली करने को तैयार नहीं। बहादुरगढ़ चैंबर आपफ कामर्स एंड इंडस्ट्रीज के अनुसार किसान संगठनों की रास्ताबंदी के कारण करीब सात लाख लोगों का रोजगार प्रभावित हो रहा है। करोड़ों रुपये के राजस्व का नुकसान अलग से हो रहा है। यही कहानी सिंघु बार्डर पर भी है। आसपास के लगभग 40 गांवों के लोग परेशान हैं, लेकिन उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है।
जो दूसरों के पेट पर लात मारने का काम करे, वह कुछ भी हो सकता है, पर अन्नदाता हरगिज नहीं हो सकता। किसान संगठनों और कुछ राजनीतिक दलों के बहकावे में आकर सड़कों पर बैठे लोग किसान नहीं हैं। ये छुटभैये नेता, आदतन आंदोलनबाज हैं। जिन्हें किसानों का नेता बताया जा रहा है, वे भी किसान नेता नहीं। बल्कि किसानों की आड़ में अपनी राजनीति चमकाने और नेतागीरी का शौक पालने वाले लोग हैं। शायद ही कोई किसान नेता ऐसा हो, जो सचमुच खेती-किसानी का काम करता हो। यह निरा झूठ है कि आम किसान धरने पर बैठा हुआ है।
आम किसानों के पास न तो इतना समय है कि वह अपना काम-धाम छोड़कर धरने पर बैठा रहे और न ही वह इतना निष्ठुर-निर्दयी हो सकता है कि जाने-अनजाने औरों की रोजी-रोटी छीनने का काम करे। यह धरना-प्रदर्शन आसानी से समाप्त नहीं होगा। वह भले ही अनंतकाल तक जारी रहे, लेकिन उसे लोगों को परेशान करने, उनकी दिनचर्या बाधित करने और उनकी रोजी-रोटी छीनने की इजाजत नहीं दी जा सकती। यह सरकारों और प्रशासन का नैतिक दायित्व है कि वे इन नकली अन्नदाताओं से आम लोगों के हितों की रक्षा करें।
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