ऐरे गैरों के बस की नहीं है दूसरों के लिए निःस्वार्थ भाव से कार्य करना
हरीश बड़थ्वाल
नई दिल्ली। अपने खाने, रहने और सुख-सुविधाएं जुटाने का काम तो निम्नकोटि के जीव भी बखूबी कर लेते हैं। सफल, सार्थक उसी मनुष्य का जीवन है, परहित में कार्य करते रहना जिसकी फितरत बन जाए।
प्रकृति की भांति दुनिया में और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटित होता है जिसे तर्क या सहज बुद्वि से नहीं समझा जा सकता। बड़े-बड़े दिग्गज तक गच्चा खाते दिखते हैं। तब अहसास जगता है कि कोई महाशक्ति समस्त चराचर जगत को संचालित, निदेशित कर रही है जिसे ईश्वर कहते हैं। मनुष्य सहित सभी जीवों के पालक और रक्षक केवल ईश्वर हैं।
यह महाशक्ति मनुष्य तथा समस्त सजीव-निर्जीव अस्मिताओं की जननी है अतः अन्य जीवों की सेवा करने और उनके संरक्षण से हम ईश्वरीय विधान की अनुपालना में योगदान देते हैं। एक धारणा के अनुसार सेवा करना उस ठौर का किराया है जिसका हम उपभोग करते हैं। सेवा में लगे व्यक्ति आपको प्रसन्नचित्त मिलेंगे। ज्ञान प्राप्ति का प्रयोजन भी मानव सेवा है। स्वामी विवेकानंद ने कहा, दूसरे की सहायता के लिए आगे बढ़ते हाथ प्रार्थना करते ओठों से अधिक पुण्यकारी हैं। एक दार्शनिक ने कहा, ‘हम सभी अंतरिक्ष में विचरते उस पृथ्वीरूपी वायुयान वायुयान (स्पेसक्राफ्रट) में सेवादार यानी परिचर टीम के सदस्य हैं जिसमें कोई यात्री नहीं है।’
सेवा को सभी पंथों में पुण्य और सराहनीय कर्म माना जाता है। सेवा के लिए परहित का भाव अनिवार्य है तथा सेवा वही सार्थक होगी जो बिना किसी शर्त, निस्स्वार्थ भाव से संपन्न की जाए। धन-संपदा, पद, प्रसिद्वि के उद्देश्य से संपादित कार्य सेवा नहीं सेवा का आडंबर हैं।
देने वाला कभी निर्धन नहीं रहता। प्रभु उन्हें विपन्न नहीं होने देते जिसमें देने का भाव हो। निष्ठा से, स्व-अर्जित में से एक अंश जरूरतमंद को देना सेवा का मुख्य घटक हैं। धर्मग्रंथों में उसी तीर्थाटन के फलीभूत होने का उल्लेख है जहां यात्रा का व्यय भी अपनी शुद्व आय से उठाया जाए, अनैतिक आय या अनुदान से नहीं। सेवाकर्मी श्रद्वा और सामर्थ्य अनुसार दूसरे व्यक्ति या संस्था को उसकी आवश्यकता या अपेक्षा के अनुसार धन, वस्तु, सुविधा या सेवा प्रदान करते हैं। असमर्थ, वंचित, निर्धन की सेवा धन, वस्त्र आदि देना तथा मान्य व्यक्ति को उसके उपयोग की वस्तु प्रदान करना सच्ची सेवा है। बेसहारा या परित्यक्त बच्चों का संभरण, उनकी शिक्षा या चिकित्सा में सहायता उच्चस्तरीय सेवा है। वृद्वजनों, विशेषकर साधन विहीन मातापिता की सेवा इतने भर को मान लेना चाहिए जब हम उन्हें खुशी-खुशी साथ रखें, उन्हें बोझ न समझें और उनका निरादर न करें।
सेवा की प्रक्रिया में सेवाभोगी और उससे अधिक सेवादार लाभान्वित होते हैं। पहले पक्ष को उस आवश्यक सामग्री या सेवा की आपूर्ति होती है जो दूसरे पक्ष के पास आवश्यकता से अतिरिक्त है। निम्न सोच के व्यक्ति को सेवा की नहीं सूझती, वह इसे तुच्छ या अपमानजनक समझता है। कार्य कोई भी छोटा नहीं होता। गुरुद्वारे या मंदिर में दूसरों के जूते चमकाने, प्रसाद खिलाने या भांडे साफ करने से किसी का दर्जा नहीं गिरता।
सेवा एक उच्च कोटि का मानवीय कृत्य है। ‘सेवा का मौका दें’ की तख्ती लगाए, अनेक कारोबारी इस पुनीत शब्द की आड़ में घिनौने, व्यापारिक हित साधते हैं। गंजे को कंघी और अनपढ़ को अखबार बेच डालने वालों सहित, प्रत्येक चलते-फिरते को मूंडने वाला आपकी सेवा करने का दावा कता है। सेवा भाव के प्रति उदासीन व्यक्ति को नहीं कौंधता कि विचार से समृद्व व्यक्ति ही जरूरतमंद को संबल दे सकता है। मनोयोग से सेवा करने वाला परालौकिक आनंद से धन्य होता है।
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