मंदिरों के ट्रस्टी और मैनेजमेंट में अपने लोगों को सेट करती हैं सत्ताधारी पार्टियां
सरकारी नियंत्रण से मुक्त हो हिन्दुओं के मठ-मंदिर
प0नि0ब्यूरो
देहरादून। सरकार मंदिरों को अपने कब्जे में लेने की कोशिश में जुटी है। आखिर सरकारें मंदिरों पर कब्जे को लेकर इतनी उतावली क्यों हैं? देश के ज्यादतर बड़े मंदिर सरकार कम और सत्ताधारी पार्टियों के कब्जे में ज्यादा हैं। सरकार में आते ही सत्ताधारी पार्टियां मंदिरों के ट्रस्टी और मैनेजमेंट में अपने लोगों को सेट करती हैं। ऐसी सियासी नियुक्तियों से आए लोग मंदिर के बेहतर प्रबंधन में कम रूचि दिखते है जबकि उनकी दिलचस्पी खजाने की हेराफेरी और पार्टी के एजेंडे को आगे बढ़ाने में ज्यादा रहती है।
कहा जाता है कि मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण के जरिए सामाजिक न्याय का मसला बहुत हद तक हल हुआ है। लेकिन मंदिर प्रबंधन में सभी जातियों को प्रतिनिधित्व मिले ये सुनिश्चित करने के लिए सरकार मंदिरों को कब्जे में ले, जरूरी नहीं है। मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है। मंदिरों पर सरकार के कब्जे को जायज नहीं ठहराया जा सकता। खासकर तब जबकि ईसाई धार्मिक संस्थानों को खुली छूट हो और मुस्लिम धार्मिक संगठनों पर सरकारी नियंत्रण न हो। 15 राज्य ऐसे हैं जो एचआरसीई एक्ट के तहत सिर्फ हिंदू मंदिरों का मैनेजमेंट करते हैं और इसी प्रबंधन के नाम पर मंदिरों की कमाई का 13-16 फीसदी सर्विस चार्ज के रूप में वसूलते हैं जबकि इन्हीं राज्यों के अल्पसंख्यक धार्मिक संस्थान पूरी तरह से स्वतंत्र हैं।
देश के करीब 9 लाख मंदिरों में से करीब 4 लाख पर सरकारी नियंत्रण है। सरकार के नियुक्त अधिकारी तय करते हैं कि मंदिर अपनी कमाई को किस मद में और कितना इस्तेमाल करेगा। दूसरी तरफ ईसाई और मुस्लिम धार्मिक संस्थान अपनी कमाई को खुलेआम धर्मांतरण की मुहिम में झोंक रहे हैं। पैसों का लालच देकर लोगों का धर्म बदलवाया जा रहा है। इससे सरकार की भूमिका कनवर्जन माफिया के फेसिलिटेटर के तौर पर दिखाई देने लगी है।
अब जनमानस धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंदुओं के धार्मिक संस्थानों पर कब्जे की नीति के खिलाफ तैयार होने लगा है। लोग समझने लगे हैं कि देश में सरकारी नियंत्रण की नीति बहुसंख्यक आबादी पर एकतरफा लागू की जाती रही है। हिंदू पर्सनल ला में बदलाव से लेकर एचआरसीई एक्ट तक तमाम उदाहरण हैं जब सरकारों ने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का शर्मनाक खेल खेला। अब ये खेल ज्यादा दिनों तक चल पाएगा। इसलिए सरकारों को मंदिरों को कब्जे से मुक्त करने की दिशा में पहल करनी चाहिए।